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कविता

प्रतिरोध

सुजाता


मैंने सर झुकाया और भीगने दिया बालों को
उँगलियों के बीच से ठंडे तेज पानी को
खुशी से इजाजत दी भागने की
गोल पत्थर को उठाकर रख दिया वापस
शरमाकर सिकुड़ गए जीव से माँगी क्षमा
जीभ दबाकर दाँत में हँसी शरारत पर
फिर पाँव रखे नदी में
और एक ठंडी सिहरन के साथ
किसी जादू से मानो
हो गई
सुनहरी मछली
मेरा होना है अब इसी जल में
मैने पा लिया है इसे
जैसे पा लेता है कोई बीज
नाखून भर मिट्टी अँखुआने के लिए
जैसे पा लेती है गिरती चट्टान एक ठौर नदी के रास्ते में
फिर भरने लगता है संगीत ऊबे पानी में।

बनाती हूँ रास्ता
माँगती हूँ श्वास
देखना
आता होगा अभी कोई जाल
मेरी टोह में

छूटती है चीख जैसे टूटता है काँच
चूरा चूरा
स्तब्ध जल विकल मन
उहापोह में

मैं जल 'में' हूँ?
या विरुद्ध जल के ?

किसी खाड़ी में खोने से पहले
नदी को लौटानी होंगी
कम से कम मेरी स्मृतियाँ
अपनी पहचान में
स्वीकारना होगा उसे
मेरा होना ठीक ऐसे
जैसे उसकी मोहक कलकल में
चट्टानों का होना
भरता है मानी

निरर्थक है पूछना -
चट्टान धारा में है या खिलाफ धारा के !


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